१. ज्ञान वाड्मय भाव वाड्मय का प्रशन ज्ञान वाड्मय के अंतर्गत वधक ज्योतिष गणित , अर्थशास्त्र , राजनीती शास्त्र आदि सब ज्ञान वाड्मय है : २. अपभंश की स्वीकृति अस्वीकृति का प्रशन अप्रभंश का प्रोयग बहुत पुराने समाया से चला आ रहा है. प्रशन है की इसे भारतीय साहित्य में सम्मिलित किया जाये की नहीं कई विद्वान इसे भारतीय वाड्मय में सम्मिलित करने के लिए तयार है तो कई नहीं . राहुल संक्रत्यान सारहपद की रचना आंठ्वी सताब्दी से ही हिंदी को मानते है , व् उसे साहित्य इतिहास में सम्मिलित करते है ' डॉ. शम्भू नाथ ने तो अप्रभंश को कोई भाषा मानने से ही इनकार किया है उनके अनुसार " अप्रभंश कोई भाषा ही नहीं है " इसलिए स्पस्ट नहीं हो पता की अप्रभंश को साहित्य के इतिहास में सम्मिलती किया जाये की नहीं ३. खड़ी बोली तथा इतर भाषो के समावेश की समस्या हिंदी साहित्य के आरंभिक काल में तो राजस्थिनी , मथिली , अवधि और ब्रज भाषा के साहित्य का वर्चस्व देखने को मिलता है, हिंदी के महान लेखको की रचनाये इन्ही भाषाओ में रचित प्राप्त होती है, उसके बाद आधुनिक काल में आकर हिंदी में खड़ी बोली की प्रतिष्ठा हो गई...
गार्सा डा तासी के इस्त्वार दे एन्दुई अ इंदुस्तान " के पश्चात् एक और विद्वान शिव सिंग सेंगर ने इस दिशा मैं प्रयास किया, शिव सिंह सेंगर ने " शिव सिंह सरोज " नामक एक एतिहासिक ग्रन्थ लिखा इसमें एक हजार कवियो का परिचय व् उधाहरण दिए गये है , किसी भारतीय विद्य्वान के द्वारा किया ये इस दिशा में पहला प्रयास है, यही हिंदी विद्वानों में काफी चर्चित रहा है विशेषताए : इस ग्रन्थ की तिथि के बारे में काफी विवाद है कई विद्य्वान इसे विश्वशनीय नहीं मानते , इस ग्रन्थ के माध्यम से हिंदी की कविताओ का एक अच्छा संकलन प्रकाश में आया है, कवि खोज का YAH सर्वप्रथम प्रयास है कवियो का जीवन परचय देकर उनकी कविता से उद्धहरण भी दिए है , जिससे कवि परिचय स्पस्ट रूप से सामने आया है इस इतिहास में भी कवियो का व्रत अकारादि क्रम से है, इतिहास की वग्यानिकता इसमें भी नहीं है हिंदी के परवर्ती इतिहास लेखन कर्ताओ ने इस ग्रन्थ को अपना आधार बनया है,
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