AAM AADMI
जुलाई माह आ गया था इस बार मेघराज कुछ देर से प्रथ्विवासियो पर अपनी किरपा द्रष्टि डाल रहे थे उमस से बुरा हाल था प्रथ्वी से भी गरम वाष्प निकल रही थी प्यास से गला सुख रहा था रुक रुक के दो चार बूंदों के छींटे आसमान से गिर रहे थे और गर्म तवे पर पड़ने वाली पानी कि बूंदों से जो प्रक्रिया होती है वो दो चार बूंदों कि छींटे वही कार्य कर रही थी और ऐसे में मेघराज कुछ ऐसे लग रहे थे जैसे की किसी गठबंधन वाली सरकार के साथ प्रत्यछ रूप से जुडी छोटी राजनीतिक दल, बात न बात अपनी उपस्थिति उनमे दर्ज करा रहे थे पर पूर्ण रूप से सामने भी न आ रहे थे और पीछे भी न जा रहे थे अब जब समय आया तो काफी मान मनोव्वल के बाद जैसे वो राजी हुए और थोड़ी सी किरपा उन्होंने इस धरती पर आज की थी, जैसे कह रहे हो की ए० सी० लगा लगा कर तुम लोगो ने ग्लोबल वार्मिंग तो बढ़ा ही दी है अब मेरी क्या जरुरत, अब अमीरों को अपने व्यक्तिगत वातानूकुलित कक्ष और माध्यम वर्ग को बी.पि. ओ के वातानूकुलित सयंत्र की आदत पड़ गई है तो मेरी क्या जरुरत तो एक प्रश्न मन में उठा महाराज फिर गरीबो का क्या होगा, गरीबो के तो आप ही भगवान हो तभी मेरे सामने एक धुंध सी छा गई बादलों का एक गुबार उठा और उसमे से एक आभा प्रकाशित करती हुई देव समान आक्रति उभरी और कडकती हुई आवाज में बोले ............... क्या कहा गरीब ! क्या मूर्खता और अज्ञानता वाला प्रश्न पूछ लिया मुर्ख ने, गरीब कौन होते है, भाई गरीबो की कोई नहीं पूछता आदिम युग से लेकर आज तक किसी ने पूछी है उनकी जो आज पूछेंगे अब तर्क मत करना वर्ना गरीबो से ज्यादा वो उन राजाओ महाराजो के नाम गिना देंगे जिन्हें गरीब अपना इश्वर मान कर पूजा करता है भैया गरीब के लिए तो अमीर ही उसका भगवान है वो तो खुद मानता है इसीलिए तो उनकी पूजा करता है कभी किसी गरीब को चैतन्य महा प्रभु , कबीर दास, रैदास सुदामा की पूजा करते देखा है, कभी देखी है इनकी तस्वीर, कोई मूर्ति किसी गरीब के पूजा घर में, मुर्ख व्यक्ति, अरे गरीब अगर गरीब की बात पहले तो करेगा नहीं क्योंकि, गरीबो को काम करने से फुर्सत कहा जो वो बात करेंगे और वो भी देश के वातावरण के ऊपर, देश के होने वाले घोटालों के ऊपर, अपनी समस्याओ के ऊपर मुर्ख है क्या अरे उसे तो अपनी निर्धनता की बात करने की फुर्सत नहीं और घोटालों को तो वो हर शुक्रवार को आने वाली नई फिल्म समझता है जो आती है और उतर जाती है जिसमे चेहरे, नाम, नए होते है बाकि कहानी वही होती है | सबकी एक सी, "घोटाले से आरम्भ होकर जांच कमिटी तक जाने वाली" बस इसमें अलग होता है तो वो संख्या जो हर घोटाले की थोड़ी बहुत अलग सी होती है | "सड़ी के" उसका तो कहना है की वो अगर इनकी बात करेगा तो अगले वक्त का खाना कहा से खायेगा | इसलिए, वो सिर्फ काम करता है न की बात, बात करने का काम तो नेता लोगो का होता है अब इसमें एक नया प्राणी जुड गया है मीडिया परसों वो भी बहुत बात करता है खाली पीली | लेकिन, गरीब गरीब की बात नहीं करेगा न उसकी गरीबी की बात करेगा, अगर किसी गरीब को उसकी बात करनी भी है तो पहले उसे अमीर बनाना पड़ेगा वो सब छल प्रंपच सिखने होंगे जो उस पर होते थे उन्हें दूसरों पर प्रयोग करना होगा ईमानदारी, सच्चाई, मेहनत, इन सब बेकार की बातो को छोडना होगा फिर उसे उसी मात्रा में धन एकत्र करना होगा जितना की कुबेर के खजाने में भी न हो किसी तब वो जा के गरीब की बात कर सकता है समझा, लेकिन महाराज फिर वो गरीब रहा कहा और क्या वो फिर उनकी बात करेगा फिर उनमे इनमे फर्क ही क्या रहा, अरे जड़मति मनुष्य यही तो में कह रहा हूँ अरे मनुष्य गरीब तो निर्बल है उसको तो सबल का ही सहारा होगा अब इस दुनिया में सम्रद्धि पूर्ण जन ही तो सबल ही इसलिए वो उनकी पूजा करेगा और मेरे भाई गरीब के लिए तो नाले का पानी भी तरणताल के समान होता है उसके लिए वही काफी है, उसकी बात मत करो उसकी बात कोई नहीं करता इस देश में तो उनकी बात करना पाप माना जाता है जिस जिस ने उनकी बात की वो सभी मुझे भी पार कर गए लेकिन प्रभु आप लोगो ने भी तो आज कल निर्धनों को कोई सहूलियत नहीं दे रखी आप भी उस धनिक की तरह हो रहे है, जो पुरे दिन अपनी फर्म में लहू चूसते है फिर शाम को अपनी नई कार में बाहर किसी रेस्टोरेंट में जाते समय बीच में देखने वाले किसी गरीब को १ या २ रुपया डाल देते है और अपने सम्पूरण दिवस के सारे पाप उस १ रूपये से धो डालने की चेष्ठा करते है | अबे "सड़ी के" ये क्यों नहीं सोचता कि अगर में अपने पुरे रंग में आ गया तो ये लोग सोयेंगे कहाँ, काम कैसे करेंगे, क्या वर्षा से बचने के इंतज़ाम है इनके पास, रह लेंगे ये लोग मुसला धार बारिश में, एक बारिश करता हू तो इनकी झुग्गिया टपक पड़ती है मूर्खानंद भारतीय कवियों तक को पता है पर तू ही मुर्ख है कि सर्दियाँ अमीरों कि होती है और गर्मी गरीबो कि मैंने कहा महाराज वो सब समझ आ गया में आपकी बात को पूर्ण रूप से मान भी गया पर ये बताइए कि बार बार ये "सड़ी के" अपशब्दों का प्रयोग क्यों कर रहे है | मेघराज बोले अबे टिम्बकटू, तिया में अभी अभी देल्ही बेली चित्र देख कर आया हूँ | ऐसी बाते सुन के कोलाहल सा होने लगा चारो और लोग से एकत्र होने लगे आवाज आई अब ठीक हो उनकी ओर मुड के देखा तो वो कह रहे थे कि अब तो ठीक हो मैंने आश्चर्य से मेघराज कि और देखना चाहा तो वो नदारद थे और मेरी सर में फिर से एक घुमेर सी आई और देखा तो में तो नीचे धरती माता कि गोद में पड़ा हूँ |
खैर ऐसी ही उमस भरी रिम झिम के बीच में एक मकान के बाहर खड़ा हो गया शायद मकान मालिक ने इस मह्गाई के ज़माने को देखते हुए प्लाट छोटा सा लगभग १७ से २० गज का ख़रीदा किन्तु अपनी मानसिक ज्ञान का या फिर किसी अन्य का अनुकरण कर के उसे छज्जे के रूप में ५ फिट तक आगे बढ़ा लिया खैर आस पास के घर काफी बड़े थे तो उनमे ये सुविधा न होने के कारण में इसी घर के नीचे खड़ा हो गया दो चार अन्य लोग भी वही आ खड़े हुए
मेरी इसी बात को सुन कर हमारे इस वार्तालाप गोष्ठी से १५ फुट जी हाँ १५ तो कम से कम रहा होगा दूर अपने घर में बैठे एक बुजुर्ग शन: शन: लोमड़ी की सी चाल से हमारे उस ग्रुप में से एक फुट की दूरी से अपनी आत्मा प्रवंचना जाग्रत कर दी और कहा की भैया अब आम कहाँ आम तो होते थे फिर एक लंबा विराम फिर जैसे ही हम में से एक ने बोलने की भाव भंगिमा बनाई ही थी की उनकी सधी और नपी हुई टाइमिंग के बाद उनका दूसरा वाक्य आरम्भ हो गया "हमारे ज़माने में ये मोटे मोटे पके हुए जहा देखो आम ही आम कुछ खास नहीं ऐसे आम की क्या बताऊ तुम्हे, फिर एक लंबा विराम लग गया अब हम सभी के सामने उस अनिश्तित विराम की लम्बाई नापने का कोई साधन तो था नहीं इसलिए पिछली बार से थोडा जल्दी बोलने की कोशिश की किन्तु उनके दीर्ध अनुभव के सामने मेरी तुच्छ होशियारी कुछ काम न आई" और उनका एक वाक्य सुनने को हम विवश हो गए और अब उनका आसन हमसे एक दो फुट दूर नहीं बल्कि हमारे बीच लग चूका था छ सात लोगो के समूह में बहार से आकर अपनी जगह बनाना और अपनी बात को प्रस्तुत करना मैंने कहा की बता हि दो अब तो जब छेड ही दी है तो दूर तलक जाने दो बस अंतिम शब्द पूरा हुआ नहीं था की उनका आम पुराण पुन : आरम्भ हो गया के भैया आम की तो क्या बात करू आम तो तभी हुआ करते थे बस ये आम कोई आम नहीं है भैया उन आमों में जान हुआ करती थी " उनकी इस बात ने मेरे मन में आम की प्राण प्रतिष्ठा कर दी और मेरा खाली मन सोचने लगा की उन आमों में जान थी भूत काल में तो क्या मैं आज तक मुर्दे आमों को खा रहा था अब मुझे आम वार्तालाप से वीभत्स रस की उत्पत्ति होने लगी" खैर वो सज्जन कहा रुकने वाले थे शायद आम की जान उनकी जबान से निकल रही थी कहने लगे की उन दिनों कोई केमिकल वगेरह नहीं डाला जाता था गोबर की खाद डाली जाती थी और गोबर के धुएं से पेड़ के कीड़े मकोड़े भगाए जाते थे किन्तु मेरा मन इस आम बात चीत को किसी विशेष पर यू अटकते देख अब इसे कही और ले जाने को करने लगा क्योंकि एक तो न सज्जन की बात चीत अब आम से कृषि विज्ञानं पर पहुँच चुकी थी और दूसरे मेरी आदत है तर्क पूर्ण स्पष्ट बात शीघ्रता पूर्वक कहने की और कुछ लोगो को मैंने देखा है की उनकी बात करने का तरीका कुछ ऐसा होता है की एक छोटे से वाकया को वो लोग १० मिनट में पूरा करेंगे मैंने बात पलटने के उद्द्येश्य से पूछा काका उस ज़माने में अंग्रेज भी तो रहा करते होंगे
अगर मैं अपने को आम आदमी के साथ रखु तो आप को कोई आपत्ति तो नहीं नहीं नहीं मेरा ये मतलब नहीं की में अपने को आम आदमी नहीं समझता बल्कि डरता हूँ की आज कल के इस राजनीति के इस आरोप प्रत्यारोप के दौर में कही आप ही मुझ पे ये शुद् आरोप न लगा दे की जी आप कहा के आम आदमी आम आदमी देखे भी है ? वर्ना मैं तो आपने आपको शुद्ध दसहरी आम वो भी कच्चा, कच्चा जी हाँ कच्चा जिसे अभी तक इस पकी हुई दुनिया की गरम हवा नहीं लगी है, जिसे अभी पकने की आवश्यकता है समझता हूँ जिसके मन के भीतर से तो कई बार ये आवाज आई के " कब पकेगा बे अब तो हद की भी हद हो गई है" और जिसे ये राजनीतिक दुनिया अपनी स्वाद लोलुपता के विवश कच्चे को ही या तो केमिकल लगा लगा कर पका कर या कच्चा ही खा जाना चाहती है,
खैर ऐसी ही उमस भरी रिम झिम के बीच में एक मकान के बाहर खड़ा हो गया शायद मकान मालिक ने इस मह्गाई के ज़माने को देखते हुए प्लाट छोटा सा लगभग १७ से २० गज का ख़रीदा किन्तु अपनी मानसिक ज्ञान का या फिर किसी अन्य का अनुकरण कर के उसे छज्जे के रूप में ५ फिट तक आगे बढ़ा लिया खैर आस पास के घर काफी बड़े थे तो उनमे ये सुविधा न होने के कारण में इसी घर के नीचे खड़ा हो गया दो चार अन्य लोग भी वही आ खड़े हुए
मेरी इसी बात को सुन कर हमारे इस वार्तालाप गोष्ठी से १५ फुट जी हाँ १५ तो कम से कम रहा होगा दूर अपने घर में बैठे एक बुजुर्ग शन: शन: लोमड़ी की सी चाल से हमारे उस ग्रुप में से एक फुट की दूरी से अपनी आत्मा प्रवंचना जाग्रत कर दी और कहा की भैया अब आम कहाँ आम तो होते थे फिर एक लंबा विराम फिर जैसे ही हम में से एक ने बोलने की भाव भंगिमा बनाई ही थी की उनकी सधी और नपी हुई टाइमिंग के बाद उनका दूसरा वाक्य आरम्भ हो गया "हमारे ज़माने में ये मोटे मोटे पके हुए जहा देखो आम ही आम कुछ खास नहीं ऐसे आम की क्या बताऊ तुम्हे, फिर एक लंबा विराम लग गया अब हम सभी के सामने उस अनिश्तित विराम की लम्बाई नापने का कोई साधन तो था नहीं इसलिए पिछली बार से थोडा जल्दी बोलने की कोशिश की किन्तु उनके दीर्ध अनुभव के सामने मेरी तुच्छ होशियारी कुछ काम न आई" और उनका एक वाक्य सुनने को हम विवश हो गए और अब उनका आसन हमसे एक दो फुट दूर नहीं बल्कि हमारे बीच लग चूका था छ सात लोगो के समूह में बहार से आकर अपनी जगह बनाना और अपनी बात को प्रस्तुत करना मैंने कहा की बता हि दो अब तो जब छेड ही दी है तो दूर तलक जाने दो बस अंतिम शब्द पूरा हुआ नहीं था की उनका आम पुराण पुन : आरम्भ हो गया के भैया आम की तो क्या बात करू आम तो तभी हुआ करते थे बस ये आम कोई आम नहीं है भैया उन आमों में जान हुआ करती थी " उनकी इस बात ने मेरे मन में आम की प्राण प्रतिष्ठा कर दी और मेरा खाली मन सोचने लगा की उन आमों में जान थी भूत काल में तो क्या मैं आज तक मुर्दे आमों को खा रहा था अब मुझे आम वार्तालाप से वीभत्स रस की उत्पत्ति होने लगी" खैर वो सज्जन कहा रुकने वाले थे शायद आम की जान उनकी जबान से निकल रही थी कहने लगे की उन दिनों कोई केमिकल वगेरह नहीं डाला जाता था गोबर की खाद डाली जाती थी और गोबर के धुएं से पेड़ के कीड़े मकोड़े भगाए जाते थे किन्तु मेरा मन इस आम बात चीत को किसी विशेष पर यू अटकते देख अब इसे कही और ले जाने को करने लगा क्योंकि एक तो न सज्जन की बात चीत अब आम से कृषि विज्ञानं पर पहुँच चुकी थी और दूसरे मेरी आदत है तर्क पूर्ण स्पष्ट बात शीघ्रता पूर्वक कहने की और कुछ लोगो को मैंने देखा है की उनकी बात करने का तरीका कुछ ऐसा होता है की एक छोटे से वाकया को वो लोग १० मिनट में पूरा करेंगे मैंने बात पलटने के उद्द्येश्य से पूछा काका उस ज़माने में अंग्रेज भी तो रहा करते होंगे
अगर मैं अपने को आम आदमी के साथ रखु तो आप को कोई आपत्ति तो नहीं नहीं नहीं मेरा ये मतलब नहीं की में अपने को आम आदमी नहीं समझता बल्कि डरता हूँ की आज कल के इस राजनीति के इस आरोप प्रत्यारोप के दौर में कही आप ही मुझ पे ये शुद् आरोप न लगा दे की जी आप कहा के आम आदमी आम आदमी देखे भी है ? वर्ना मैं तो आपने आपको शुद्ध दसहरी आम वो भी कच्चा, कच्चा जी हाँ कच्चा जिसे अभी तक इस पकी हुई दुनिया की गरम हवा नहीं लगी है, जिसे अभी पकने की आवश्यकता है समझता हूँ जिसके मन के भीतर से तो कई बार ये आवाज आई के " कब पकेगा बे अब तो हद की भी हद हो गई है" और जिसे ये राजनीतिक दुनिया अपनी स्वाद लोलुपता के विवश कच्चे को ही या तो केमिकल लगा लगा कर पका कर या कच्चा ही खा जाना चाहती है,
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