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मार्च, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

आदिकालीन साहित्य सामग्री

आदिकालीन साहित्य को प्राप्त साहित्य के आधार पर निम्नं भागो में बनता जा सकता है | १. धार्मिक साहित्य  ( जैन साहित्य , सिद्ध साहित्य , नाथ साहित्य ) २. लौकिक साहित्य ( वीरगाथा परक साहित्य ) ३. इतर साहित्य धार्मिक साहित्य जैन साहित्य : जैन साहित्य की अधिकांश रचनाये अपभ्रंश की है | अपभ्रंश से उत्प्पन हिंदी जैन साहित्य न केवल धार्मिक द्रस्टी से अपितु भाषा वैय्ज्ञानिक दृष्टी से भी बड़ा महत्व रखती है | जैन ग्रंथो में देवसेन का श्रावकाचार , दर्शंसर , स्वयम्भू का पयुम चारिउ आदि प्राचीन जैन काव्य माने जाते है | पयुम  चारिउ राम कथा पर आधारित है | कुछ विद्वानों ने स्वयम्भू को प्रथम जैन कवि मन है | अन्य जैन कवियो में पुष्पदंत, धनपाल, चंद्रमुनी, आदि का उल्लेख किया गया है | देव सेन ने पाने " सवाया धम्म दोहा " ग्रन्थ में  ग्रास्थ्स जीवन का वर्णन किया गया है | पुष्पदंत जैन साहित्य के प्रमुख कवि है  इन्होने डय कुमार चारिउ की रचना की 

आदि काल की परिस्थियां राजनातिक परिस्थियां , धार्मिक परिस्तिथी , सामाजिक परिस्थिति :

आदि काल की परिस्थियां  राजनातिक परिस्थियां हिंदी साहित्य के इतिहास से पूर्व गुप्ता साम्राज्य का पतन हो गया था,  भीतरी शिलालेख में आया है की  हूणों ने आक्रमण कर के पूरी धरती को हिला दिया था | गुप्त साम्राज्य के पतन के पश्चात मुख्या रूप से  पांच राजवंशो का उदय हुआ वल्लभी  कान्यकुब्ज मालवा और मगध  बंगाल  थानेश्वर                                   धार्मिक परिस्तिथी भारत  के रक्त में धार्मिकता के तत्व वैदिक काल से ही देखने को मिलते है | वेदों के पश्चात बोध धरम का उदय अपने आप में एक बहुत महत्व पूर्ण बात है , हिंदी साहित्य के आरम्भ में बोध धरम की पृष्ठभूमि ध्यान देने योग्य है जैन धरम : जैन धर्मं के प्रवर्तक महावीर स्वामी थे | इस धरम में कई आचार्य व त्रिथ्कर हुए है जिनकी संख्या २५ मानी गई है | महावीर स्वामी  ६  शाताब्ती में हुए थे और इनका निवास वैशाली था | जैन धर्म का मूल सिद्धांत चार बातो पर आधारित है अहिंसा , सत्य भाषण, अस्तये , और अनासक्ति  बाद में इसमें ब्रहमचर्य को भी समिलित कर लिया गया , बाद में जैन धरम दो भागो में बंट गया , जिस प्रकार हिंदू धरम के उदय ने बोध धरम क

हिंदी साहित्य का काल विभाजन

साहित्य बढती हुई नदी के समान होता है यह निरंतर विकास करता है, इसलिए उसे सही अर्थो में विभाजित नहीं किया जा सकता , किसी भी भाषा के साहित्य का इतिहास सब कालो में एक सा नहीं होता है किसी एक काल में कुछ विशेष परवर्तियअ और लक्षण दिखाई देते है फिर वे लुप्त हो जाते है , उनके स्थान पर नहीं प्रवार्तिया आ जाती है , इन्ही काल विशेष की प्रविअर्त्यो के आधार पर कालो का विभाजन हुआ है, कालो का वीर गाथा काल , भक्ति काल, रीती काल , अदि नामकरणइसी का उधाहरण है | काल विभाजन और नामकरण अद्द्यान की सुविधा के लिए आवश्यक है किन्तु इन्हें गणित की तरह नितांत वज्ञानिक और पुराण नहीं कहा जा सकता , सचाई यह है की काल विभाजन बहुत कुछ अनुमान पर आधारित होता है, यह कहना की अमुक काल अमुक तिथि अमुक समय पर प्रारंभ हुआ तथा अमुक तिथि पर समाप्त हो गया  उससे पूर्व की सभी प्रवति समाप्त हो गई तथा उससे दूसरे दिन दूसरा काल प्रारंभ हो गया  गलत होगा, वस्तुत एक काल की प्रवातियाँ दूसरे काल में अतिक्रमण करती है , जैसे की रीती काल में भक्ति की धारा की कमी नहीं थी, तथा भक्ति काल में  श्रृंगार का प्राचुर्य पाया जाता है| हिंदी साहित्य

डॉ. हजारी प्रसाद दिवेदी का हिंदी साहित्य का इतिहास

सन १९४० में हिंदी साहित्य की भूमिका के नाम से इनका इतिहास ग्रन्थ प्रकाशित हुआ ,डॉ. हजारी प्रसाद दिवेदी जी की खोज पूर्ण द्रष्टि इसमें दिखाई देती है, कई जगह पर इन्होने आचार्य शुक्ल की मान्यतो का खंडन किया है | विशेषताएं : इन्होने  अपने इतिहास में नई सामग्री नयी द्रष्टि तथा नए विचार प्रस्तुत किये है | इन्होने  सिदो तथा नाथों को उभरा है तथा कबीर व आदि संतो पर उनका प्रभाव दिखया है | आदि काल पर अलग से विस्तार पूर्वक ग्रन्थ लिखा है तथा उसे अलग से छपवा है |   आचर्य  चतुरसेन : आचर्य चतुरसेन ने हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास " नाम से एक बड़ा ग्रन्थ लिखा है , इस गांठ के लिखने में लेखक ने बड़ा परिश्रम किया है , उसकी भूमिका पढ़ने योग्य है विशेषताएं : इसमें भाषा ,ध्वनि , लिपि आदि पर विचार किया गया है तत्पश्चात हिंदी साहित्य की चर्चा की गई है  इन्होने हिंदी साहित्य को ७६० से माना है तथा " सरहपा " को पहला कवि माना है |   हिंदी  साहित्य का वृहत इतिहास तथा सामूहिक सहयोग के इतिहास नगरी प्रचारणी सभा ने १६ भागो में एक बहुत बड़ा इतिहास छापा है , अलग अलग भागो में इसके अलग अलग सं

अन्य हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रन्थ

डॉ. राम कुमार वर्मा ने हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास लिखा शुक्ल जी के बाद यही अधिक महत्व का और बड़ा इतिहास ग्रन्थ है | विशेषताएं : इसमें चरण काल , धार्मिक काल, तक का वर्णन है बीच में संधि काल का भी नाम आता है,  इस इतिहास में काव्य धाराओं के नामो में परिवर्तन किया गया है, संत काव्य , प्रेम काव्य , इन्ही ने नाम दिए है  इन्होने हिंदी साहित्य के आरंभ को ६९३ ई से माना है, तथा स्वम्भू को पहला कवि माना है | इस इतिहास के पश्चात अन्य कई इतिहास  पदमलाल पुन्ना लाल , गणेश प्रशाद दिवेदी, गुलाबराय आदि के इतिहास भी प्रकाश में आये..

राम चंद्र शुक्ल का हिंदी साहित्य का इतिहास

राम चंद्र शुक्ल का  हिंदी साहित्य का इतिहास सन १९२१ में राम चंद्र शुक्ल का हिंदी साहित्य का इतिहास सामने आया , यह हिंदी शब्द सागर की भूमिका के रूप में लिखा गया था , उसी को बढाकर इसे इतिहास ग्रन्थ के रूप में लाया गया , इसमें १००० के लगभग कवियो लेखकों पर विचार किया गया है | हिंदी साहित्य इतिहास ग्रंथो में इस तिहास का बहुत अधिक महत्व है, विशेषताएं : इतिहास के काल विभाजन पर नवीन  द्रष्टि से विचार किया गया , उसके नामकरण और युगीन परिवेश को स्पस्ट किया गया है , तर्क पूर्ण मीमांसा द्वारा अपना निर्णय दिया गया है | सहियता की उस काल विशेष में होने वाली प्रव्तियो पर अधिक ध्यान दिया गया है | उसके सम्बन्ध में वक्तव्य देकर उसकी विवेचन की है  रचनाको के ग्रंथो का मूल्यांकन किया गया है | आचार्य शुक्ल ने अपने हिंदी साहित्य के इतिहास में आरम्भ के बहुत से कवियो को धर्म सम्बन्धी रचनाये बता कर उन्हें इसमें सम्मिलित नहीं किया है | जबकि आज उनके मूल्य को एतिहासिक संगती से पहचाना गया है | कुछ ऐसे कवियो को इसमें पहचाना गया जो पूर्व ग्रंथो में उपेक्चित रह गए थे , जायसी ऐसे ही महान कवि थे  जिन्हें शुक्ल ज

मिश्र बंधुओ का मिश्र बंधू विनोद

मिश्र बंधुओ का मिश्र बंधू विनोद  सन  १९१३ में क्रिशनबिहारी मिश्र और शुकदेव बिहारी मिश्र और गणेश बिहारी मिश्र नामक तीन भाइयों ने मिश्र " बंधू विनोद " नामक ग्रन्थ लिखा था, उस समाया इसको तीन भागो में निकला था बाद में इसका चोथा भाग भी प्रकाशित हुआ था, अब यह पुन दो भागो में छापकर आया है | इस ग्रन्थ में हिंदी के ५००० कवियो का वर्णन है इन्होने नवरत्नो के नाम से हिंदी के तुलसी, सुर , देव, बिहरी , भूषण , मति राम , केशव, कबीर , चंद , इन नौ कवियो को लिया , तथा हरिश्चंद की भी आलोचना की विशेषताएँ : मिश्रबंधुविनोद  में लेखकों की राजनातिक , सामाजिक , साहित्यिक , गतिविधयो के बारे में बताया है, इससे उस युग की भूमिका का स्वरूप सामने आता है | इस रचन में अनेक अज्ञात कवि प्रकाश में आये है, खोज पूर्ण विवरण कई है | इसमें ८ से आधिक खंड बनाये गए है तथा अपने वक्तव्य भी दिए गए है | इस रचन में कवियो की रचनाओ के उधाहरण तथा उनकी रचनाओ का एक अच्छा स्वरुप प्रस्तुत हुआ है | हिंदी साहित्य के इतिहास में पहली बार आलोचनात्मक द्रस्टी का प्रयोग हुआ है |

जोर्ज ग्रियसन का हिंदी साहित्य इतिहास

जोर्ज ग्रियसन का हिंदी साहित्य इतिहास जार्ज ग्रियसन ने इंग्लिश में "  THE MODERN VERNACULAR LITERATURE  OF INDIA " के नाम से एक ग्रन्थ निकाला यह वस्तुत : एशियाटिक सोसिटी ऑफ़ बंगाल पत्रिका के एक विशेषांक के रूप में था, ग्रियसन ने इतिहास द्रष्टि का प्रयोग कर और शिव सिंह सरोज के सहारे इसकी रचना की , हिंदी साहित्य की इसमें अच्छी दिशा द्रष्टि देखने को मिलती है | विशेषताए : इतिहास लेखन और इतिहास द्रष्टि को रखने वाला यह पहला ग्रन्थ है |  एक तरह से वयावास्तिथ रूप से लिखा गया यह पहला ग्रन्थ है | यह ग्रन्थ काल क्रम के अनुसार वर्गीकरण करके लिखा गया है | सबसे बड़ी विशेषता इसकी यह है की इसमें काल विशेष की परवर्तियो को स्पस्ट किया गया है | इस ग्रन्थ में १५२ कवियों की जीवनी की रचनाओ  और काव्य सम्बन्धी परिचय को प्रस्तुत किया गया है | संस्कृत , प्राकृत , उर्दू आदि से अलफ केवल हिंदी कवि लिए गए है | चरण काव्य , धार्मिक काव्य , प्रेम काव्य दरबारी काव्य , के रूप में इस रचना में वर्णन किये गए है, हिंदी साहित्य के परवर्ती इतिहास्स्कारो ने इससे बहुत कुछ प्रेरणा ली है |

हिंदी साहित्य का इतिहास लेखन की परंपरा शिव सिंग सेंगर KA शिव सिंह सरोज

गार्सा डा तासी के  इस्त्वार दे एन्दुई अ इंदुस्तान " के पश्चात् एक और विद्वान शिव सिंग सेंगर ने इस दिशा मैं प्रयास किया, शिव सिंह सेंगर ने " शिव सिंह सरोज " नामक एक एतिहासिक ग्रन्थ लिखा इसमें एक हजार कवियो का परिचय व् उधाहरण दिए गये है , किसी भारतीय विद्य्वान के द्वारा किया ये इस दिशा में पहला प्रयास है,  यही हिंदी विद्वानों में काफी चर्चित रहा है विशेषताए : इस ग्रन्थ की तिथि के बारे में काफी विवाद है कई विद्य्वान इसे विश्वशनीय नहीं मानते ,  इस ग्रन्थ के माध्यम से हिंदी की कविताओ का एक अच्छा संकलन प्रकाश में आया है,  कवि खोज का YAH सर्वप्रथम प्रयास है  कवियो का जीवन परचय देकर उनकी कविता से उद्धहरण भी दिए है , जिससे कवि परिचय स्पस्ट रूप से सामने आया है  इस इतिहास में भी कवियो का व्रत अकारादि क्रम से है, इतिहास की वग्यानिकता इसमें भी नहीं है  हिंदी के परवर्ती इतिहास लेखन कर्ताओ ने इस ग्रन्थ को अपना आधार बनया है, 

हिंदी साहित्य का इतिहास लेखन की परंपरा

हिंदी साहित्य का इतिहास लेखन की परंपरा  हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन के बीज तो हमें " चोरासी VAYSHNAV  की वार्ता " दो सो बावन वश्नो की वार्ता " में ही प्राप्त हो जाते है ,  पर ये रचनाये हिंदी साहित्ता के सम्बन्ध में केवल परिचय मात्र है, इनमे निष्टि तिथि और क्रम का ब्यौरा नहीं है. ये रचनाये इतहास नहीं है , इतिहास तो अतीत की घटना , स्तिथि , व परवर्ती का क्रम बाधा ब्यौरा होता है, , विद्वानों ने मन HAI की राजा शिव प्रशाद सितारे हिंद ने हिंदी साहित्य के इतिहास पर एक निबंध लिखा था , उसमे कुछ एतिहासिकता नाम की चीज़ थी गार्सा डी तासी का इतिहास गार्सा डी तासी फ्रेंच विद्वान थे वो एशियाई भाषो के जानकार थे , इन्होने फ्रेंच भाषा में हिंदी कवियो का इतिहास लिखा है, उसका फ्रेंच में नाम है " इस्त्वार डी ला लितुरेरे इ हिन्दुस्तानी " ये ग्रन्थ दो भागो में निकला , दिवित्य खंड तीन भागो में निकला गया जिसमे और भी वृधि की गई , विशेषता :  गार्सा डी तासी का यह प्रतन हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास माना जाता है ,   इन्होने कवियो के रचनाकाल का ब्यौरा दिया है , हिंदी कवी , मुस्ल

हिंदी साहित्य का इतिहास लेखन में समस्या

१. ज्ञान वाड्मय भाव वाड्मय का प्रशन  ज्ञान वाड्मय के अंतर्गत वधक ज्योतिष गणित , अर्थशास्त्र , राजनीती शास्त्र आदि सब ज्ञान वाड्मय है : २. अपभंश की स्वीकृति अस्वीकृति का प्रशन  अप्रभंश का प्रोयग बहुत पुराने समाया से चला आ रहा है. प्रशन है की इसे  भारतीय साहित्य में सम्मिलित किया जाये की नहीं कई विद्वान इसे भारतीय वाड्मय में सम्मिलित करने के लिए तयार है तो कई नहीं . राहुल संक्रत्यान सारहपद की रचना आंठ्वी सताब्दी से ही हिंदी को मानते है , व् उसे साहित्य इतिहास में सम्मिलित करते है ' डॉ. शम्भू नाथ ने तो अप्रभंश को कोई भाषा मानने से ही इनकार किया है उनके अनुसार " अप्रभंश कोई भाषा ही नहीं है " इसलिए स्पस्ट नहीं हो पता की अप्रभंश को साहित्य के इतिहास में सम्मिलती किया जाये की नहीं ३. खड़ी बोली तथा इतर भाषो के समावेश की समस्या हिंदी साहित्य के आरंभिक काल में तो राजस्थिनी , मथिली , अवधि और ब्रज भाषा के साहित्य का वर्चस्व देखने को मिलता है, हिंदी के महान लेखको की रचनाये इन्ही भाषाओ में रचित प्राप्त होती है, उसके बाद आधुनिक काल में आकर हिंदी में खड़ी बोली की प्रतिष्ठा हो गई